Kavita aur Geet – 10+ कविता और गीत का बहुत सुंदर संग्रह

हेलो दोस्तो आज हम आप सबलोगो के लिए बहुत ही सुंदर Kavita aur Geet in Hindi मे लेकर आये है। जो निश्चित रूप से आप सबको बहुत पसंद आयेंगे। ये कविताये और गीत उस समय की है जब लोग लेखनी को महत्व देते थे। इंसान तो रहते नही लेकिन उनके द्वारा रचित लेखनी हमेशा दिल और दिमाग मे जिन्दा रहती है। और वो हमारे दिलो मे हमेशा राज करते है।

हिन्दी कविता और गीत

1 – अरे मन ! अब राम में रम !
जगत का जंजाल तजकर, हृदय में अनुराग भर कर;
बस उसी की याद में अविरल, उसी की शरण में जम ॥ 1 ॥
प्रणति-पुलकित-भक्ति भास्वर कर प्रवाहित प्रेम-निर्झर;
अनु-जल प्रभुपद चढ़ाकर, त्याग सारा लोभ औ भ्रम ॥ 2 ॥
उदधि-उर्मि समान जीवन, वारि बुद-बुद-सा अथिर तन;
चिर-चिदाकृति हेतु कर श्रम नियम संयम ॥ ३॥

2 – रे मन ! राम कहो।
भोगे बहुत प्रपंच जगत के, इनके उनके अपने मत के;
आई अब सन्ध्या की बेला प्रभु का नाम कहो ॥1 ॥
जग का यह वैभव दो दिन का, उड़ जायेगा जैसे तिनका;
कुछ भी नहीं यहाँ है अपना, प्रभु का धाम गहो ॥2॥
दुनिया साथ न दे पायेगी, जब तक जीवन भरमायेगी;
इस दुनिया की सुख-सुविधा से हो निष्काम रहो ॥3 ॥

3 – बूंद-बूंद करके जीवन का कुल घट रीत गया।
अपनी कहते उनकी सुनते, रंग-बिरंगे तागे बनुते ।
घिर आई फिर साँझ गगन में, कुल दिन बीत गया ॥1 ॥
पर्वत तोड़े, सोते फोड़े, कुछ अपनाकर, कुछ को छोड़े।
चाह-राह चुनने में ही तो चला अतीत गया ॥ 2 ॥
कुछ तो खिले फूल कुछ मुरझे, कुछ काँटे दामन में उरझे।
उलझन सुलझाने में ही तो कुल पल बीत गया ॥3 ॥

4 – आज न जाने क्यों घर आई शाम उदास रही ।
बूढ़ा पेड़ नीम का द्वारे सहमा खड़ा रहा, घर का पाला काला कुत्ता गुमसुम पड़ा रहा।
डोले पात न बोले पंछी सब कुछ सन्न रहा, चारों ओर रेंगता चलता तम आसन्न रहा।
पुरवा खड़ी सामने लेती लम्बी साँस रही, आज न जाने क्यों घर आई शाम उदास रही ॥ 1 ॥

चौपाए चर-चोथ दिवस भर फिर वापस आए, बैठे खड़े गोठ में पागुर करते मुँह बाए।
गाल लाल कर दीवालों के सूरज डूब गया, लगातार रोशनी बाँटता दिन भी ऊब गया।
बंधी घाट पर नाव नदी का दुःख एहसास रही, आज न जाने क्यों घर आई शाम उदास रही ॥2॥

फिर जग गये नखत नभ के मुस्कान-रजत छाई, एक हूक-सी उठी तुम्हारी याद बहुत आई।
बोला वन में मोर, पपीहे ने भी मुँह खोला, उड़ी सुगन्धि पवन दक्खिन का मंद-मंद डोला।
फिर भी रात अनमनी, व्याकुल बहुत निराश रही, आज न जाने क्यों घर आई शाम उदास रही ॥3।

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5 – देखो फिर घिर आए बादल ।
धरती तपकर चूर हुई जब, जल भुनकर मजबूर हुई जब।
गरज गगन घन छाए बादल, देखो फिर घिर आए बादल ॥1 ॥

सूरज ने की यों मनमानी, माँग रहा सारा जग पानी।
रस-सागर छलकाए बादल, देखो फिर घिर आए बादल ||2 ||

श्यामल घन में चपला चमकी, बदली की है बिन्दिया दमकी।
देख रहे मुँह बाए बादल, देखो फिर घिर आए बादल ॥3 ॥

दादुर-मोर-पपीहा बोले, सीप सिन्धु में सम्पुट खोले।
चातक के मन भाए बादल, देखो फिर घिर आए बादल ॥4 ॥

वन-उपवन थिरकी हरियाली, नाच उठी हर तरु की डाली।
सबको गले लगाये बादल, देखो फिर घिर आए बादल ॥5॥

व्याह रहा धरती को अम्बर सभी ओर है सजा स्वयम्बर ।
मुक्ता राशि लुटाए बादल, देखो फिर घिर आए बादल ॥6 ॥

पटह-ढोल बजती सारंगी, राग उठ रहे हैं बहुरंगी।
रिमझिम रिमझिम गाए बादल, देखो फिर घिर आए बादल ॥7 ।।

मैं हूँ दूर पिया के घर से, नहीं समझते ये मुँह झरसे।
मेरी पीर जगाए बादल, देखो फिर घिर आए बादल ॥8 ॥

6 – ऋतु के पति धरती पर आए।
कू-कू करके कोयल बोली, कुडमल कुल ने आँखें खोली।
सरसीरुह मुस्काए, ऋतु के पति धरती पर आए ॥1 ॥

अपनी गई गरीबी भूर्ती, कंज-करील झाड़ियाँ फूर्ती।
सुमन-कोष भर आए, ऋतु के पति धरती पर आए ॥2॥

गमकी ढोल मंजीरा बोला, फागुन ने मादक रस घोला।
गाँव धमार मचाए, ऋतु के पति धरती पर आए ॥3 ॥

रंग खेलती खुली जवानी, देवर-भाभी की मनमानी।
मिलकर रास रचाए, ऋतु के पति धरती पर आए ॥4॥

सज-धज खिली रंगीली कलियाँ, उन पर झूमी भ्रमरावलियाँ।
वन औ बाग सुहाए, ऋतु के पति धरती पर आए ॥5॥

निर्मल सर है, निर्मल पानी, महकी जीवों की जिनगानी।
तरु फूले-बौराए, ऋतु के पति धरती पर आए ॥6॥

दुनिया की यह रीति निराली, गम है कहीं, कहीं खुशियाली।
दुःख-सुख है उलझाए, ऋतु के पति धरती पर आए ॥7॥

मेरे पिय का दूर बसेरा, ऊपर से वियोग ने घेरा।
मन डूबे-उतराए, ऋतु के पति धरती पर आए ॥8 ॥

7 – फिर हैं जाड़े के दिन आये।
चुप है कोयल मौन पपीहा, पशु-पक्षी की ठिठुरी जीहा।
सिकुड़ गयी पेड़ों की पत्ती, गदहों की गुम हुई दुलत्ती।
कुंज-कुंज मुरझाये, फिर हैं जाड़े के दिन आये ॥1 ॥

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ठरनि ठहाका मार रही है, पछुआ पंख पसार रही है।
गायब हुई सूर्य की शेखी, धूप चाँदनी जैसी देखी।
नभ पाला बरसाये, फिर हैं जाड़े के दिन आये ॥2॥

कूड़ा-कर्कट झोल पताई, सबकी है हो गई सफाई।
हुए अलावों के आयोजन, तरुणी तेल तप्त-सा भोजन।
सबके मन को भाए, फिर हैं जाड़े के दिन आये ॥3 ॥

8 – गाना हो तो मानवता के गाने गाओ।
अदिवासी वनवासी गिरिजन, हेला, भंगी, मुसहर, हरिजन ।
अगर कहीं मिल जायँ झपटकर उनको गले लगाओ ॥1 ॥

जाति-धर्म की कारा तोड़ो, टूटे हुए दिलों को जोड़ो।
गौतम-गाँधी, ईसा-मूसा के पथ को अपनाओ ॥2॥

जो हैं हीन उपेक्षित निर्धन, नंगा जिनका तन, प्यासा मन।
उनमें बाटों प्यार और उनका दुःख-भार घटाओ ॥3 ॥

देवी देव ब्रह्म औ ईश्वर, राजा-रानी और नरेश्वर-
बीत गये, नर में फिर ‘नारायण भाव’ जगाओ ॥4॥

पापी नहीं पाप को त्यागो, जन-जन के सुख का वर माँगो।
दुःखियों के दुःख दूर करो, जीवन को सफल बनाओ ॥5॥

हिन्दू-मुस्लिम-सिख-ईसाई, सभी आपके अपने भाई।
सबके बीच बन्धुता की रस-धारा को ढरकाओ ॥6॥

9 – सूख गये गन्ने के खेत, बहुत तपे सूर्य देवता ।
सूख गयी नदी फटा ताल का कलेजा,
बिखर गया शीतलता का भेजा-भेजा,
उड़ती है सभी ओर रेत, बहुत तपे सूर्य देवता ।॥1 ॥
घोर घाम में झुलसी खेतों की दूब,
आग भरी गर्मी से सभी गये ऊब,
तड़प-तड़प मरते हैं जीव सेत-मेत, बहुत तपे सूर्य देवता ।।2 ।।

उछल रहे हिरनों की पथरायी आँख,
पानी-बिन जंगल के बाघ रहे काँख ।
मुरझाए वन, वन के बेत, बहुत तपे सूर्य देवता ॥3 ॥

हाँफ रही शहरों की गरमायी गलियाँ,
छटपट-छटपट करती ताल की मछलियाँ।
जड़-चेतन सभी हैं अचेत, बहुत तपे सूर्य देवता ॥4 ॥

चिल्लाती भैंसें हैं, कुत्ते मुँह बाए,
रैंक रहे गदहों के अच्छे दिन आये।
हरे-भरे आक हैं पलाश के समेत । बहुत तपे सूर्य देवता ॥5॥

10 – वन वसन हैं वसुमती के मित्र ?
इनको मत उजाड़ो
क्योंकि इनके उजड़ने से स्वयं धरती ही उजड़ नंगी बनेगी
और पृथ्वी पुत्र तू ? नंगी करेगी देह माँ की
छिः!
स्वयं हो बर्बाद
फिर असमर्थ होकर, व्यर्थ होकर
क्या करेगा ?
अर्थ हेतु अनर्थ ढोकर !
स्वयं हो संतप्त खुद को ही छलेगा
नाशकामी बना, तो कब तक पलेगा ?
और यह सन्ताप यह परिताप तेरा –
नारकीय भविष्य बनकर
मिटा देगा –
वह तुम्हारा रिक्थ
जिसका सृजन पुरखों ने किया था
बैठ बन के बीच
बहती नदी-तट पर।

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11 – मीत मानव !
सोच और विचार कर ले
प्यार कर ले प्रकृति से ।
है ज्ञात मुझको यह नहीं क्या ?
सृजन-क्षण से साथ तेरे
चल रहा हूँ, पल रहा हूँ
पालता तुमको मधुर फल-फूल देकर
तुष्ट करता, पुष्ट करता, छाँव देता
ताप औ विक्षोम, तेरे रोग हरता
देख तेरे अंग से बहते हुए श्रम बिन्दु
मैं झुक झूमता हूँ
चूमता हूँ चरण तेरे
और छाया दे अरे मानव !
तुम्हारे ताप का करता निवारण
क्योंकि ‘भू’ को तू बनाता स्वर्ग
मैं अपवर्ग का रस घोलता हूँ
औ तुम्हें संभार देता, प्यार देता।
पर तुम्हारी क्रूरता, कुविचार से
मैं दुःखित होता
जब मुझे तू काटता है
वाटिका, वन को बना वीरान
भरता है तिजूरी
मूर्ख मानव !
क्या नहीं तू जानता और मानता है?
वन-वनस्पतियों कि पौधे, पेड़
और वनालियों से ही तुम्हारी जिन्दगी है।
होश में आओ
हमारे चिर सखा स्नेही मनुज !
देखो मुझे
पहचान लो
मैं पेड़ हूँ
मै पेड़ हूँ ॥

12 – मना कर दिया साफ कहारों ने हमसे
अब डोली उनसे नहीं उठायी जायेगी।
दूल्हन लूटी जाय, लुटे गहने उसके,
तोड़-फोड़ पालकी जला दी जायेगी ॥1 ॥

समय-समय की बात समय पर वश किसका ?
बेहाली में आश नहीं इसका उसका।
लोग मर्सिया गाने को आ बैठे हैं,
अब शहनाई नहीं बजायी जायेगी ॥2॥

इनसे-उनसे मिले-जुले, सुख-दुःख झेला,
सांझ हुई अब उठने वाला है मेला।
भरी भीड़ में तुम्हें मुखातिब करने को
अब न कभी आवाज लगायी जायेगी ॥3 ॥

बिखर उठे हैं आज सभी ताने-बाने,
आगे क्या होगा यह तो ईश्वर जाने।
कुछ भी नहीं रहेगा, तब भी कुछ दिन तो
लोगों द्वारा कही कहानी जायेगीं ॥4॥

लेखक – स्व. डा0 शिवनारायण शुक्ल “प्रवक्ता हिंन्दी”