आज आपलोगो के लिये कुछ चुनिंदा गीत, (Geet) लेकर आये है जिनके माध्यम से आप इसको पढकर बहुत ज्यादा सुखानुभव महसूस कर सकते है| ये कविताये और गीत उस जमाने के है जब लोग अपनी भावनाओ और अपने दुख, दर्द और प्रेम को एक गीतिका के माध्यम से पेश करते थे उन्ही मे से कुछ प्रचलित कवियो द्वारा कृत कुछ कविताओ का संकलन लेकर आये है|
गीत (Geet)
पछुआ हवा चली।
तपते शहर गांव, घर-आंग, व्याकुल पशु पक्षी नर, गिरिवन।
आग उगलती आई गर्मी, सचमुच बहुत खली। पछुआ हवा चली।
आया जलता जेठ महीन, तन से बहने लगा पसीना।
दिन की नींद रात से ज्यादा मुझको लगी भली | पछुआ हवा चली|
खिले ताल मे कमल रंगीले, कुछ है लाल, श्वेत कुछ पीले|
द्वारे गंध लुटाती फिर बेला की खिली कली| पछुआ हवा चली|
पाके आम पक गई लीची, बच्चो से भर उठी बगीची|
उठते राग ब्याह के, बाजे, बजते गली – गली | पछुआ हवा चली|
अवं सरीखा दाह भरा दिन, दुपहर के सन्नाटे का छिन |
बीत, आओ चले पार्क मे, देखो शाम धली|| पछुआ हवा चली|
लेखक – स्व. डा0 शिवनारायण शुक्ल “प्रवक्ता हिंन्दी”
गीत – 2
क्या – क्या हमने नही किया अपवाद बनने के लिए,
खुद को हवन करके रची, रंगो भरी मधु अल्पना
जूठी ना उपमाएं छुई छोडी ना कोई कल्पना
हर दृष्टि मे सजते रहे, संवाद बनने के लिए||1||
सब प्रश्न बौने हो गये, यश – कामना अम्बर हुई,
अखबार की सुर्खी हमारी साधना का स्वर हुई।
मुख पृष्ठ पर संज्ञा लिखी, अनुवाद बनने के लिए||2||
लेकिन जिसे गाते रहे, हम दर्द कहकर भीड मे।
जिसके लिए कागज बहुत, काले किये निज नीड मे।
वह दर्द ही हमसे नही इक याद बनने के लिए||3||
लेखक – राधाकृष्ण शुक्ल “पथिक”
बहुत सुंदर गीत
पहाडो के सिर जा चढी धीरे – धीरे।
जो चीटी जमी से चली धीरे – धीरे।
यही छोटी-छोटी सी भूखे तुम्हारी
बनेंगी बडी त्रासदी धीरे – धीरे।
अमीरो के विस्तर गजब के है यारो
गई उड मेरी नींद ही धीरे – धीरे।
तुम्हारे खयालो मे डूबे तो डूबे
रहे चाहे जाये सदा धीरे – धीरे।
ये अंधा है इसको न रास्ता बताओ
चला जायेगा आदमी धीरे – धीरे।
उसे दर्द शायद हुआ है अचानक
बजाने लगा बांशुरी धीरे – धीरे।
ये समझो पथिक जल्द ही अब मिलेंगे
उतरने लगी है नदी धीरे – धीरे।
लेखक – राधाकृष्ण शुक्ल “पथिक”
धन्य अरे पत्थर तूने कितना सबका उपकार किया।
मानव के उत्थान के लिए खुद मिटना स्वीकार किया।
तुझ से ही तो मानव ने जगती मे है सब कुछ पाया।
तूने ही तो पूजित होकर उसे ब्रह्म तक पहुचाया।
तेरी अगम उच्चता बुध जन उच्च हिमालय से पूछे।
उसकी परम पूतता प्रज्ञावान शिवालय से पूछे ।
देखा है तुमको सबने पर इन बातो पर ध्यान कहा।
इतनी दूरदर्शिता का निश्चिंत किसी मे भान कहां।
इन भेदो का भेदन करने वाला केवल कवि ही है।
देने वाला जो प्रकाश का जग मे केवल रवि ही है।
लेखक – बाबू नानकचंद “निश्चिंत”
विद्युतद्युति –सी एक तार मे गुंथी नही दीपो की माला।
जिसे काट देने से सहसा मिट जाता है, सकल उजाला।
हर प्रदीप के अलग – अलग छवि फिर भी साथ जला करते है।
जैसे अलग – अलग पूंजी से गृह उद्योग चला करते है।
दीप मनुजता के प्रतीक है, उनका अपना आकर्षण है।
उनमे एक घरेलूपन है, उनमे एक स्वावलम्बन है।
कोमल सरस उंगलियों द्वारा बनती है दीपक की बाती।
दीपक का आलोक मधुर है, उससे दृष्टि ना मारी जाती ।
लेखक – बाबू जगन्नाथ प्रसाद श्रीवास्तव
इतने वर्ष व्यतीत हो गये
समय चला पर चल ना सके हम
समय फला पर फल ना सके हम
सपने सभी अतीत हो गये| इतने वर्ष व्यतीत हो गये
चले मगर कब सोच समझकर,
फले मगर अति दूर गमन पर
फल श्रम के विपरीत हो गये | इतने वर्ष व्यतीत हो गये
लेखक – बाबू जगन्नाथ प्रसाद श्रीवास्तव
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मेरा नाम अपूर्व कुमार है मैंने कम्प्युटर्स साइंस से मास्टर डिग्री हासिल किया है | मेरा लक्ष्य आप लोगो तक हिंदी मे लिखे हुये लेख जैसे जीवन परिचय, स्वास्थ सम्बंधी, धार्मिक स्थलो के बारे मे, भारतीये त्यौहारो से सम्बंधित, तथा सुन्दर मैसेज आदि सुगमता से पहुचाना है. तथा अपने मातृभाषा हिन्दी के लिये लोगो को जागरूक करना है. आप लोग नित्य इस वेबसाइट को पढ़िए. ईश्वर आपलोगो को एक कामयाब इंसान बनाये इसी कामना के साथ मै अपनी वाणी को विराम दे रहा हूँ. अगर हमारे द्वारा किसी भी लेख मे कोई त्रुटि आती है तो उसके लिये मै क्षमाप्रार्थी हूँ. |
हिंन्दी मे सोच पढने लिये आपका बहुत – बहुत धन्यवाद